|
|
|
CONTRIBUTION OF THE ROLE OF LEFTIST IDEOLOGY IN INDIAN POLITICS: A HISTORICAL ASSESSMENT
वामपंथी विचारधारा की भूमिका का भारतीय राजनीति में योगदान: ऐतिहासिक मूल्यांकन
Dr. Kirti Kumari 1 ![]()
1 Department of History, Ph.D From Malwanchal University, Indore, M.P., India
|
|
ABSTRACT |
||
|
English: This paper
provides a historical assessment of the role of leftist ideology in Indian
politics. Its objective is to critically analyze the impact of leftist
parties and movements on the Indian social, economic, and political
landscape, from pre-independence to the present. Key Findings and Contributions: The research
found that leftist ideology has significantly influenced key policy areas
such as land reforms (particularly in Kerala and West Bengal), the protection
of labor rights, and the establishment of the Public Distribution System. At
the non-parliamentary level, it has played a key role in organizing peasant
and labor movements and bringing social justice issues into the national
discourse. Limitations and Evaluation: The historical assessment also shows that leftist parties have faced electoral challenges and diminished relevance due to ideological shifts at the global and national level (such as economic liberalization). This research concludes that although the left's electoral presence has diminished, its ideological contribution has left an indelible mark on India's democratic and socio-economic structure, indirectly forcing mainstream politics to focus on the issues of the poor and marginalized. Hindi: यह शोध
पत्र भारतीय
राजनीति में
वामपंथी विचारधारा
की भूमिका के
योगदान का
ऐतिहासिक
मूल्यांकन
करता है।
इसका
उद्देश्य
स्वतंत्रता-पूर्व
से लेकर
वर्तमान तक, भारतीय
सामाजिक, आर्थिक
और राजनीतिक
परिदृश्य पर
वामपंथी दलों
और आंदोलनों
के प्रभाव का
आलोचनात्मक
विश्लेषण
करना है। मुख्य
निष्कर्ष और
योगदान : शोध
में पाया गया कि
वामपंथी
विचारधारा
ने भूमि
सुधारों
(विशेषकर
केरल और
पश्चिम
बंगाल में), श्रमिक
अधिकारों के
संरक्षण और
सार्वजनिक वितरण
प्रणाली की
स्थापना
जैसे प्रमुख
नीतिगत
क्षेत्रों
को
महत्वपूर्ण
रूप से
प्रभावित किया
है।
गैर-संसदीय
स्तर पर, इन्होंने
किसान और
श्रमिक
आंदोलनों को
संगठित करने
तथा सामाजिक
न्याय के
मुद्दों को
राष्ट्रीय
विमर्श में
लाने में
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई है। सीमाएँ
और
मूल्यांकन :
ऐतिहासिक
मूल्यांकन यह
भी दर्शाता
है कि
वैश्विक और
राष्ट्रीय
स्तर पर
वैचारिक
बदलावों
(जैसे आर्थिक
उदारीकरण) के
कारण
वामपंथी
दलों को
चुनावी
चुनौतियों और
प्रासंगिकता
के ह्रास का
सामना करना
पड़ा है। यह
शोध
निष्कर्ष
निकालता है
कि यद्यपि
वामपंथ की
चुनावी
उपस्थिति कम
हुई है, लेकिन
इसका
वैचारिक
योगदान भारत
के लोकतांत्रिक
और
सामाजिक-आर्थिक
ढांचे पर एक
अमिट छाप छोड़ता
है, जिसने
मुख्यधारा
की राजनीति
को गरीबों और
वंचितों के
मुद्दों पर
ध्यान
केंद्रित
करने के लिए
परोक्ष रूप
से बाध्य
किया। |
|||
|
Received 08 October 2025 Accepted 19 November 2025 Published 02 December 2025 Corresponding Author Dr. Kirti
Kumari, kmkirtis98@gmail.com DOI 10.29121/ShodhSamajik.v2.i2.2025.51 Funding: This research
received no specific grant from any funding agency in the public, commercial,
or not-for-profit sectors. Copyright: © 2025 The
Author(s). This work is licensed under a Creative Commons
Attribution 4.0 International License. With the
license CC-BY, authors retain the copyright, allowing anyone to download,
reuse, re-print, modify, distribute, and/or copy their contribution. The work
must be properly attributed to its author.
|
|||
|
Keywords: Leftist Ideology, Indian Politics, Historical Assessment, Communism, Socialism, Labour Movement, Land
Reforms, CPI, CPI(M) वामपंथी
विचारधारा, भारतीय
राजनीति, ऐतिहासिक
मूल्यांकन, साम्यवाद, समाजवाद, श्रम आंदोलन, भूमि सुधार, सीपीआई, सीपीआई(एम) |
|||
भारतीय
राजनीति का
अध्ययन
वामपंथी
विचारधारा और
उसके संगठनों
के योगदान को
समझे बिना अधूरा
है। वामपंथ, अपनी
ऐतिहासिक
जड़ों में
मार्क्सवाद (Marxism), साम्यवाद
(Communism),
और समाजवाद (Socialism) के
सिद्धांतों
को समाहित
करता है, जो मुख्य
रूप से वर्ग
संघर्ष,
पूंजीवाद के
विरोध और
सर्वहारा
वर्ग की मुक्ति
पर केंद्रित
हैं Dimitrov, G. (1935)।
भारत में, यह
विचारधारा
20वीं शताब्दी
की शुरुआत में
ब्रिटिश
औपनिवेशिक
शासन और
अर्ध-सामंती (semi-feudal)
सामाजिक
संरचना के
विरोध में एक
शक्तिशाली बल
के रूप में
उभरी।
यह शोध
पत्र भारतीय
राजनीति में
वामपंथी विचारधारा
की भूमिका का
योगदान: एक
ऐतिहासिक मूल्यांकन
प्रस्तुत
करता है। इस
अध्ययन की
प्रासंगिकता
इस बात में
निहित है कि
वामपंथी दलों ने
न केवल संसदीय
लोकतंत्र के
भीतर सक्रिय
रूप से भाग
लिया,
बल्कि श्रम
और किसान
आंदोलनों के
माध्यम से भारत
के
सामाजिक-आर्थिक
नीतियों के
एजेंडे को भी
आकार दिया।
उदाहरण के लिए, भूमि
सुधार,
श्रमिक
अधिकार,
और
सार्वजनिक
क्षेत्र के
विस्तार जैसे
मुद्दे
वामपंथी
हस्तक्षेप के
कारण ही
राष्ट्रीय विमर्श
का केंद्र
बने।
2. साहित्य की समीक्षा
भारतीय
वामपंथ पर
विद्वतापूर्ण
साहित्य व्यापक
है, जिसे
तीन मुख्य
धाराओं में
विभाजित किया
जा सकता है:
1)
उत्पत्ति
और
सैद्धांतिक
विकास (Origin
and Theoretical Development):
इस धारा के
तहत अध्ययन
भारतीय
कम्युनिस्ट
पार्टी (CPI) के
गठन और सोवियत
संघ के साथ
उसके वैचारिक
संबंधों पर
केंद्रित
हैं। एम. आर.
मासानी Masani (1954)
जैसे शुरुआती
लेखकों ने
कम्युनिस्टों
के राष्ट्रीय
आंदोलन के
प्रति रुख पर
आलोचनात्मक दृष्टिकोण
प्रस्तुत
किया है, जबकि जीन
एस्केलेस Echeles (1974)
ने वामपंथी
दलों के
संगठनात्मक
विभाजन (CPI
और CPI-M)
और उनकी
सैद्धांतिक
बहस पर प्रकाश
डाला है।
2)
संसदीय और
चुनावी
प्रदर्शन (Parliamentary
and Electoral Performance):
इसमें
वामपंथी दलों
के चुनावी
गढ़ों केरल, पश्चिम
बंगाल,
और त्रिपुरा
में उनकी
दीर्घकालिक
शासन प्रणालियों
का विश्लेषण
शामिल है।
फ्रैंक्वीन और
ओल्सन Franquine and Olson (1980) ने
केरल के
"सामाजिक
लोकतांत्रिक"
मॉडल पर शोध
किया,
जहाँ
वामपंथी
सरकारों ने
शिक्षा और
स्वास्थ्य
में
महत्वपूर्ण
प्रगति की।
वहीं,
पश्चिम
बंगाल में
"ऑपरेशन
बर्गा" जैसे
भूमि सुधार
कार्यक्रमों
पर
बैंडोपाध्याय Bandopadhyay (1988)
का कार्य
वामपंथ के
नीतिगत
प्रभाव को
दर्शाता है।
3)
आंदोलन और
नीतिगत
प्रभाव (Movements
and Policy Impact):
यह खंड
वामपंथी-प्रेरित
सामाजिक
आंदोलनों, जैसे
कि अखिल
भारतीय किसान
सभा (AIKS)
और ट्रेड
यूनियनों, द्वारा
नीति-निर्माण
पर डाले गए
दबाव का मूल्यांकन
करता है।
दासगुप्ता Dasgupta (1989)
ने भूमि
सुधारों को
लागू करने में
जमीनी स्तर की
लामबंदी की
महत्वपूर्ण
भूमिका पर जोर
दिया।
मौजूदा
साहित्य
वामपंथ के उदय
और उनकी क्षेत्रीय
सफलताओं को तो
दर्शाता है, लेकिन
1990 के बाद के
आर्थिक
उदारीकरण (Economic
Liberalization) और
चुनावी
गिरावट के
संदर्भ में
इसके योगदानों
और सीमाओं का
एक एकीकृत, ऐतिहासिक
और
आलोचनात्मक
मूल्यांकन
अभी भी आवश्यक
है। यह शोध
इसी अंतराल को
भरने का प्रयास
करेगा।
3. शोध प्रश्न और उद्देश्य
यह शोध
निम्नलिखित
मुख्य शोध
प्रश्न का
उत्तर देने का
प्रयास करता
है:
भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा का
योगदान क्या
है, और
समय के साथ
इसकी भूमिका
का विकास 1947 से
वर्तमान तक
किस प्रकार
हुआ है?
इस मुख्य
प्रश्न को हल
करने के लिए, निम्नलिखित
उद्देश्य
निर्धारित
किए गए हैं:
1)
ऐतिहासिक
विकास का पता
लगाना:
स्वतंत्रता-पूर्व
श्रमिक
आंदोलनों से
लेकर 21वीं सदी
की गठबंधन
राजनीति तक
वामपंथी दलों
के विकास का
ऐतिहासिक
मूल्यांकन
करना।
2)
नीतिगत
प्रभाव का
विश्लेषण:
वामपंथी दलों
द्वारा
प्रस्तावित
और लागू किए
गए
सामाजिक-आर्थिक
नीतियों (जैसे
भूमि सुधार, श्रम
कानून और
सामाजिक
सुरक्षा) के
राष्ट्रीय और
क्षेत्रीय
प्रभाव का
विश्लेषण
करना।
3)
योगदानों
और सीमाओं का
मूल्यांकन: भारतीय
संसदीय
लोकतंत्र को
मजबूत करने, विपक्ष
की भूमिका
निभाने और
सामाजिक
आंदोलनों को
प्रेरित करने
में उनके
योगदानों का
आलोचनात्मक
मूल्यांकन
करना,
साथ ही उनकी
चुनावी
गिरावट और
वैचारिक
विरोधाभासों
की सीमाओं पर
प्रकाश
डालना।
4. कार्यप्रणाली (Methodology)
यह शोध
मुख्य रूप से
ऐतिहासिक (Historical) और
विश्लेषणात्मक (Analytical) दृष्टिकोण
पर आधारित है।
·
ऐतिहासिक
पद्धति: वामपंथी
दलों के गठन, विभाजन, और
प्रमुख
राजनीतिक
घटनाओं के
प्रति उनके रुख
का
कालानुक्रमिक
(chronological)
अध्ययन करने
के लिए प्रयोग
की जाएगी।
·
विश्लेषणात्मक
पद्धति:
विभिन्न
नीतिगत
क्षेत्रों
(जैसे कृषि, श्रम, और
शिक्षा) पर
वामपंथ के
प्रभाव की गहन
समझ विकसित
करने के लिए
अपनाई जाएगी।
डेटा
स्रोत:
·
प्राथमिक
स्रोत: वामपंथी
दलों के
घोषणापत्र, पार्टी
कांग्रेस के
प्रस्ताव, और
प्रमुख
नेताओं के
भाषणों का
विश्लेषण किया
जाएगा।
·
द्वितीयक
स्रोत:
प्रतिष्ठित
शैक्षणिक
पत्रिकाओं
में प्रकाशित
शोध लेख, विद्वतापूर्ण
पुस्तकें, और
सरकारी
आयोगों की
रिपोर्टें
(जैसे भूमि सुधार
पर समिति की
रिपोर्ट)
शामिल होंगी।
इस पद्धति
का लक्ष्य
भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा के
योगदान का एक
संतुलित, साक्ष्य-आधारित
और अकादमिक
रूप से कठोर
मूल्यांकन
प्रस्तुत
करना है।
5. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और विकास (Historical Context and Development)
1)
स्वतंत्रता-पूर्व
काल: वैचारिक
नींव और
आंदोलन (Pre-Independence
Era: Ideological Foundation and Movements)
भारतीय
वामपंथी
विचारधारा की
जड़ें 20वीं
शताब्दी के
आरंभिक दशकों
में देखी जा
सकती हैं, जो
रूस की
बोल्शेविक
क्रांति (Bolshevik Revolution) (1917)
से प्रेरित थी
Sarkar (1983)।
इस काल में
भारतीय
कम्युनिस्टों
ने मुख्य रूप
से औपनिवेशिक
शोषण और देश
के
अर्ध-सामंती सामाजिक-आर्थिक
ढांचे के
विरुद्ध
संघर्ष किया।
कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया (CPI) का
गठन (1925)
भारत में
संगठित
वामपंथी
राजनीति की
शुरुआत 1925 में
कानपुर में
कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया (CPI) के
औपचारिक गठन
के साथ हुई।
शुरुआती
कम्युनिस्टों
ने राष्ट्रीय
आंदोलन की
बागडोर संभालने
वाली भारतीय
राष्ट्रीय
कांग्रेस की
नीतियों से
असहमति जताई।
उनका मानना था
कि भारत की
मुक्ति केवल
साम्राज्यवाद
से ही नहीं, बल्कि
पूंजीवादी
शोषण से भी
होनी चाहिए Lieten (1992)।
वे कांग्रेस
को "बुर्जुआ"
नेतृत्व वाली
पार्टी मानते
थे, जिसके
कारण
स्वतंत्रता
संग्राम के
दौरान उनका
रुख अक्सर
विरोधाभासी
रहा।
श्रम और
किसान
आंदोलनों में
अग्रणी
भूमिका
CPI ने
कांग्रेस की
राजनीतिक
नेतृत्व वाली
शैली के बजाय
वर्ग-आधारित
लामबंदी (Class-Based
Mobilization) पर
जोर दिया।
·
श्रमिक
संगठन: 1920 और 1930
के दशक में, कम्युनिस्टों
ने ट्रेड
यूनियनों और
औद्योगिक
श्रमिकों के
बीच गहरी पैठ
बनाई। अखिल
भारतीय ट्रेड
यूनियन
कांग्रेस (AITUC) जैसे
संगठनों में
उनकी
सक्रियता ने
श्रमिकों के
लिए न्यूनतम
वेतन,
सुरक्षित
कामकाजी
माहौल और आठ
घंटे के कार्यदिवस
जैसे सुधारों
की मांग को
मुखर किया।
·
किसान
लामबंदी:
कृषि क्षेत्र
में, अखिल
भारतीय किसान
सभा (AIKS) के गठन (1936)
में वामपंथी
नेताओं की
महत्वपूर्ण भूमिका
थी। AIKS ने
जमींदारी
प्रथा को
समाप्त करने, बटाईदारों
को सुरक्षा
प्रदान करने
और ऋणों की
माफी के लिए
देशव्यापी
आंदोलन किए।
तेभागा (बंगाल)
और
पुन्नप्रा-वायलार
(केरल) जैसे
विद्रोहों ने
दिखाया कि
वामपंथी
आंदोलनकारी
ग्रामीण
गरीबों की
समस्याओं के
समाधान के लिए
गैर-संसदीय
दबाव बनाने
में सक्षम थे Jeffrey (1992)।
इस प्रकार, स्वतंत्रता-पूर्व
काल में
वामपंथी
विचारधारा ने
वर्गीय चेतना
का विकास किया
और भारतीय राजनीति
को केवल
राजनीतिक
स्वतंत्रता
से आगे बढ़कर
सामाजिक-आर्थिक
परिवर्तन के
लक्ष्य की ओर
मोड़ने का
प्रयास किया।
2)
स्वतंत्रता-पश्चात्:
नेहरू युग, वैचारिक
विभाजन और
संसदीय सफलता (Post-Independence:
Nehruvian Era, Ideological Split, and Parliamentary Success)
स्वतंत्रता
(1947) के बाद, भारतीय
वामपंथ को
अपनी रणनीति
और भारत जैसे
नव-स्वतंत्र
राष्ट्र में
क्रांति की
प्रकृति को
लेकर गहन
आत्म-निरीक्षण
करना पड़ा। इस
चरण को
उतार-चढ़ाव, वैचारिक
विभाजन और
क्षेत्रीय
संसदीय सफलताओं
की विशेषता
प्राप्त है।
आरंभिक
विरोधाभास और
नेहरू युग (1947–1964)
प्रारंभ
में, कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया (CPI) ने नेहरू
के नेतृत्व
वाली सरकार की
"बुर्जुआ"
प्रकृति के
आधार पर उसका
विरोध किया और
1948 में तेलंगाना
किसान
विद्रोह जैसे
सशस्त्र संघर्षों
में शामिल
हुई। हालांकि, बाद
में सोवियत
संघ के प्रभाव
और भारतीय
यथार्थ की समझ
के चलते CPI ने संसदीय
लोकतंत्र में
भाग लेने का
निर्णय लिया।
CPI की
सबसे
महत्वपूर्ण
सफलता 1957 में
केरल में आई, जहाँ
ई.एम.एस.
नंबूदरीपाद
के नेतृत्व
में यह दुनिया
की पहली
निर्वाचित
कम्युनिस्ट
सरकार बनी Nossiter (1982)।
इस सरकार ने
भूमि सुधारों
और शैक्षिक
सुधारों की
शुरुआत की, जिसने
सार्वजनिक
नीति पर
वामपंथ के
प्रभाव की
क्षमता को
प्रदर्शित
किया।
हालांकि, केंद्र
सरकार ने 1959 में
इस सरकार को
अनुच्छेद 356 का
उपयोग करके
बर्खास्त कर
दिया,
जिसने
केंद्र-राज्य
संबंधों में
वामपंथी दलों
के लिए चुनौती
पैदा की।
वैचारिक
विभाजन: CPI और CPI(M) का
उदय (1964)
1964 में
भारतीय
कम्युनिस्ट
आंदोलन में एक
निर्णायक
विभाजन हुआ, जिसके
परिणामस्वरूप
दो प्रमुख
दल—कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया (CPI) और
कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया-मार्क्सवादी
[CPI(M)]—उभरे।
यह विभाजन
मुख्य रूप से
वैचारिक और
रणनीतिक मतभेदों
पर आधारित था (Echeles, 1974, p. 301):
·
CPI:
सोवियत संघ
के प्रति अधिक
झुकाव रखती थी
और कांग्रेस
पार्टी के
प्रगतिशील
गुट के साथ
सहयोग (सामरिक
गठबंधन) करने
की इच्छुक थी, विशेषकर
इंदिरा गांधी
के शासनकाल के
दौरान।
·
CPI(M): चीन
की
कम्युनिस्ट
पार्टी की
विचारधारा से
अधिक
प्रभावित थी
और भारतीय
क्रांति के
लिए अधिक कठोर
मार्क्सवादी
दृष्टिकोण
रखती थी। CPI(M) ने
नेहरू-गांधी
सरकारों को
बुर्जुआ-जमींदारी
गठबंधन मानते
हुए, कांग्रेस
से दूरी बनाए
रखने और
स्वतंत्र रूप से
वर्ग संघर्ष
पर जोर देने
का फैसला
किया।
यह विभाजन
आज भी वामपंथी
राजनीति की
चुनावी और
संगठनात्मक
जटिलताओं को
परिभाषित
करता है।
नक्सलवादी
आंदोलनों का
जन्म
1967 में, CPI(M) के भीतर
के एक और
कट्टरपंथी
गुट ने,
जिसने
संसदीय
राजनीति को
"संशोधनवाद"
कहकर अस्वीकार
कर दिया, नक्सलबाड़ी
विद्रोह
(पश्चिम
बंगाल) शुरू
किया। चारू
मजूमदार जैसे
नेताओं के तहत, इस
गुट ने
सशस्त्र
संघर्ष और
"ग्राम्य
क्षेत्रों से
शहर को घेरने"
की रणनीति को
अपनाया,
जिससे
सीपीआई (एमएल) [CPI(ML)] और
विभिन्न
माओवादी
समूहों का उदय
हुआ Kohli (1990)।
इन आंदोलनों
ने वामपंथी
राजनीति की
हिंसा और
गैर-संसदीय
क्रांति की
सीमाओं को
दर्शाया।
यह काल
भारतीय
वामपंथ के लिए
वैचारिक
शुद्धता और
व्यावहारिक
राजनीति के
बीच संघर्ष को
दर्शाता है, जिसने
बाद में उनकी
क्षेत्रीय और
राष्ट्रीय राजनीति
में भूमिका को
आकार दिया।
3)
क्षेत्रीय
और चुनावी
गतिशीलता: गढ़ों
का उदय और
प्रासंगिकता
का ह्रास (Regional
and Electoral Dynamics: Rise of Strongholds and Decline in Relevance)
1964 के
विभाजन और
नक्सलवादी
उग्रवाद के
बावजूद,
भारतीय
वामपंथ ने
अपने दो
प्रमुख
राज्यों—पश्चिम
बंगाल और
केरल—में
संसदीय
राजनीति के माध्यम
से अभूतपूर्व
और
दीर्घकालिक
सफलता प्राप्त
की। इन
राज्यों में
वामपंथ का उदय
और बाद में
उसका पतन, भारतीय
चुनावी
गतिशीलता को
समझने के लिए
महत्वपूर्ण
केस स्टडी
प्रदान करता
है।
पश्चिम
बंगाल मॉडल:
दीर्घकालिक
वाम मोर्चा शासन
(1977-2011)
पश्चिम
बंगाल में, कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ
इंडिया
(मार्क्सवादी)
[CPI(M)]
के नेतृत्व
वाले वाम
मोर्चा (Left
Front) ने
1977 से 2011 तक
लगातार 34
वर्षों तक
शासन किया। यह
लोकतांत्रिक
ढंग से
निर्वाचित
वामपंथी
सरकार द्वारा
दुनिया में
सबसे लंबे समय
तक चलने वाले
शासन का एक
रिकॉर्ड है।
सफलता की
कुंजी: इस
सफलता का
मुख्य कारण
भूमि सुधार
कार्यक्रम थे, विशेष
रूप से 'ऑपरेशन
बर्गा'
जिसके तहत
बटाईदारों (bargadars) के
अधिकारों को
कानूनी
मान्यता दी गई
और उन्हें
बेदखली से
सुरक्षा मिली Bandopadhyay (1988)।
इस कदम ने
ग्रामीण
गरीबों और
बटाईदारों के
बीच वामपंथ के
लिए एक अटूट
समर्थन आधार
बनाया। इसके
अलावा,
पंचायती राज
संस्थाओं को
मजबूत करने पर
जोर दिया गया, जिससे
शक्ति का
विकेंद्रीकरण
हुआ और जमीनी
स्तर पर
पार्टी की
संगठनात्मक
पकड़ मजबूत
हुई।
पतन के
कारक: 21वीं सदी
के शुरुआती
वर्षों में, वाम
मोर्चा सरकार
ने
औद्योगीकरण
पर ध्यान केंद्रित
किया। सिंगूर
और नंदीग्राम
जैसे स्थानों
पर कृषि भूमि
के अधिग्रहण
को लेकर हुए
विवादों ने
ग्रामीण
समर्थन आधार
को हिला दिया।
2011 में,
पार्टी को
चुनावी हार का
सामना करना
पड़ा,
जिससे भारत
की राजनीति
में वामपंथ के
सबसे मजबूत
गढ़ का पतन
हुआ।
केरल
मॉडल: सामाजिक
लोकतंत्र और
द्विदलीय प्रणाली
केरल में, वामपंथ
की भूमिका
अधिक चक्रीय (cyclical) रही
है, जहाँ
वाम
लोकतांत्रिक
मोर्चा (LDF) और
संयुक्त
लोकतांत्रिक
मोर्चा (UDF)
के बीच हर
पाँच साल में
सत्ता
परिवर्तन
होता रहा है।
विशिष्ट
योगदान:
केरल की
वामपंथी
सरकारों ने
भूमि सुधारों
को लागू करने
के अलावा, शिक्षा, स्वास्थ्य
और सार्वजनिक
वितरण
प्रणाली (PDS) में
महत्वपूर्ण
निवेश किया। न
केवल साक्षरता
और शिशु
मृत्यु दर
जैसे मानव
विकास
सूचकांकों (Human
Development Indices - HDI)
में राज्य को
राष्ट्रीय
औसत से ऊपर ले
जाने में
वामपंथी
नीतियों की
निर्णायक
भूमिका रही है Jeffrey
(1992)।
यह मॉडल
दिखाता है कि
वामपंथी
राजनीति संवैधानिक
ढांचे के भीतर
रहते हुए भी
कल्याणकारी राज्य
(Welfare State)
के लक्ष्यों
को प्राप्त कर
सकती है।
रणनीतिक
अनुकूलन:
केरल में
वामपंथी दलों
ने अन्य छोटे
दलों और धार्मिक/जातीय
समूहों के साथ
प्रभावी
गठबंधन करके
अपनी
राजनीतिक
प्रासंगिकता
बनाए रखी है, जो
उन्हें
पश्चिम बंगाल
से अलग करता
है।
4)
राष्ट्रीय
राजनीति में
गठबंधन और
प्रासंगिकता
का ह्रास
राष्ट्रीय
स्तर पर, वामपंथी
दलों ने
गठबंधन
सरकारों के
गठन और स्थायित्व
में
महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई
है।
समर्थन की
भूमिका: 1996
में संयुक्त
मोर्चा (United
Front) और
2004 से 2008 तक
संयुक्त
प्रगतिशील
गठबंधन (UPA-I) सरकार
को दिए गए
उनके बाहरी
समर्थन ने
उन्हें नीतिगत
फैसलों
(विशेषकर
जन-समर्थक
नीतियों) पर
निर्णायक
प्रभाव डालने
की शक्ति दी।
उदाहरण के लिए, सूचना
का अधिकार (RTI)
और
राष्ट्रीय
ग्रामीण
रोजगार
गारंटी अधिनियम
(NREGA)
जैसे
महत्वपूर्ण
विधानों को
पारित कराने
में वामपंथ का
दबाव
महत्वपूर्ण
था।
चुनावी
गिरावट:
हालांकि, 2008 में
भारत-अमेरिका
परमाणु
समझौते पर
मनमोहन सिंह
सरकार से
समर्थन वापस
लेने के बाद
वामपंथ को
चुनावी
नुकसान हुआ।
इसके बाद के
चुनावों में, विशेषकर
2014 और 2019 में, राष्ट्रीय
स्तर पर उनकी
सीटों की
संख्या में भारी
गिरावट आई। यह
गिरावट
वैचारिक
ध्रुवीकरण, हिंदुत्व
की राजनीति का
उदय Kohli (1990), और आर्थिक
उदारीकरण के
कारण ग्रामीण
और शहरी दोनों
क्षेत्रों
में वर्ग
चेतना के
कमज़ोर होने को
दर्शाती है।
निष्कर्ष
रूप में, वामपंथी
आंदोलन ने
क्षेत्रीय
स्तर पर अपनी
ताकत और
प्रभाव को
सिद्ध किया, लेकिन
राष्ट्रीय
स्तर पर, वैचारिक
कठोरता और
बदलती
सामाजिक-आर्थिक
परिस्थितियों
के साथ तालमेल
बिठाने में
विफलता ने
उनकी चुनावी
प्रासंगिकता
को गंभीर रूप
से चुनौती दी
है।
यह
टाइमलाइन
भारतीय
वामपंथ के
सबसे मजबूत गढ़
पश्चिम बंगाल
में
कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ इंडिया
(मार्क्सवादी)
[CPI(M)] के
नेतृत्व वाले
वाम मोर्चा के
दीर्घकालिक शासन
के प्रमुख मील
के पत्थरों को
दर्शाती है।
|
वर्ष (Year) |
घटना (Event) |
निहितार्थ (Implication) |
|
1977 |
वाम मोर्चा
सत्ता में
आया (Left Front came to power) |
यह भारत में
लोकतांत्रिक
साधनों से
कम्युनिस्टों
की सबसे बड़ी
और
दीर्घकालिक
सफलता थी। इसने
वामपंथ के
संसदीय
अनुकूलन को
सिद्ध किया। |
|
1978 |
ऑपरेशन
बर्गा की
शुरुआत (Launch of
Operation Barga) |
बटाईदारों (Sharecroppers)
को कानूनी
मान्यता दी
गई। यह
कार्यक्रम
ग्रामीण
गरीबों के
बीच वाम
मोर्चे के
लिए एक अटूट
समर्थन आधार बनाने
में
निर्णायक था,
जो उनकी 34 साल की
सत्ता का
आधार बना। |
|
1978-80 |
पंचायती राज
संस्थानों
का
सुदृढ़ीकरण |
स्थानीय
निकायों को
शक्ति का
हस्तांतरण
किया गया।
इससे ज़मीनी
स्तर पर पार्टी
की
संगठनात्मक
पकड़ (Party Hegemony) मजबूत
हुई और
नीतियों का
कार्यान्वयन
आसान हुआ। |
|
1990 |
श्रम और
किसान
आंदोलनों का
चरम |
वाम मोर्चा
की
लोकप्रियता
उच्च स्तर पर
थी, जिसने
राष्ट्रीय
राजनीति में
भी
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई। |
|
2006 |
औद्योगीकरण
पर जोर और
सिंगूर
विवाद |
बुद्धदेव
भट्टाचार्य
के नेतृत्व
वाली सरकार
ने टाटा
मोटर्स के
लिए कृषि
भूमि का
अधिग्रहण
शुरू किया।
यह कदम
पारंपरिक कृषक
समर्थन आधार और
वैचारिक
एजेंडे के
बीच
विरोधाभास
को दर्शाता
है। |
|
2007 |
नंदीग्राम
हिंसा (Nandigram Violence) |
विशेष
आर्थिक
क्षेत्र (SEZ)
के लिए
भूमि
अधिग्रहण के
विरोध में
पुलिस कार्रवाई
हुई। इस घटना
ने व्यापक जन
विरोध को जन्म
दिया और
पार्टी की
छवि को किसान-विरोधी
बना दिया। |
|
2008 |
पंचायत
चुनावों में
समर्थन में
गिरावट |
सिंगूर और
नंदीग्राम
के प्रभावों
के कारण तृणमूल
कांग्रेस के
हाथों
ग्रामीण
क्षेत्रों में
वाम मोर्चा
को पहली
गंभीर हार
मिली। |
|
2011 |
वाम मोर्चे
की चुनावी
हार (Electoral Defeat of the Left Front) |
34 वर्षों
के शासन के
बाद वाम
मोर्चा
सत्ता से बाहर
हो गया। यह
हार भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा
के चुनावी
ह्रास की
निर्णायक
घटना थी। |
6. विश्लेषणात्मक
निष्कर्ष (Analytical Conclusion)
इस
टाइमलाइन से
यह स्पष्ट
होता है कि
वाम मोर्चा का
पतन वैचारिक
कठोरता के
कारण नहीं, बल्कि
बदलती आर्थिक
नीतियों
(उदारीकरण) के
सामने
रणनीतिक
विरोधाभास
(अर्थात, भूमि
सुधार बनाम
जबरन
औद्योगीकरण)
के कारण हुआ।
इसने पार्टी
के पारंपरिक
समर्थन आधार
को alienate
कर दिया और
विपक्ष को
सत्ता में आने
का अवसर दिया।
|
चुनाव
वर्ष |
CPI(M) द्वारा
जीती गई
सीटें |
CPI द्वारा
जीती गई
सीटें |
कुल
सीटें (CPI + CPI(M)) |
|
1980 |
35 |
11 |
46 |
|
1984 |
22 |
6 |
28 |
|
1989 |
33 |
12 |
45 |
|
1991 |
35 |
14 |
49 |
|
1996 |
32 |
12 |
44 |
|
1998 |
32 |
9 |
41 |
|
1999 |
33 |
4 |
37 |
|
2004 |
43 |
10 |
53 |
|
2009 |
16 |
4 |
20 |
|
2014 |
9 |
1 |
10 |
|
2019 |
3 |
2 |
5 |
|
2024 |
4 |
2 |
6 |
7. विश्लेषण के लिए मुख्य अवलोकन
1)
सर्वोच्च
प्रदर्शन (2004): 2004
के चुनाव में
सबसे अधिक
संयुक्त सीट
संख्या 53 थी, जिसका
मुख्य कारण
पश्चिम बंगाल
और केरल में मजबूत
प्रदर्शन था।
इसने वामपंथ
को UPA-I सरकार
का एक
महत्वपूर्ण
बाहरी समर्थक
बनने की
स्थिति में ला
खड़ा किया।
2)
महत्वपूर्ण
गिरावट (2009): 2009
में एक बड़ी
गिरावट आई (20
सीटों तक), जो
परमाणु
समझौते को
लेकर UPA
सरकार से
समर्थन वापस
लेने और
पश्चिम बंगाल
में आंतरिक
मुद्दों के
बाद हुई थी।
3)
अप्रासंगिकता
की स्थिति (2014 और
2019): बाद के
चुनावों में
ऐतिहासिक रूप
से कम सीटें
आईं, जिसमें
संयुक्त
संख्या 2014 में 10
और 2019 में 5 तक
गिर गई,
जो
राष्ट्रीय
चुनावी
प्रासंगिकता
के नुकसान की
पुष्टि करती
है, जिसकी
चर्चा शोध
पत्र में की
गई है।
4)
2024 के चुनाव
में, वामपंथी
दलों ने पिछली
बार (2019 में 5
सीटें) की तुलना
में अपनी
संयुक्त
संख्या में
मामूली वृद्धि
दर्ज की, जो 6 सीटों (CPI(M) 4, CPI 2)
पर पहुँच गई।
यह वृद्धि
मुख्य रूप से
तमिलनाडु
जैसे राज्यों
में गठबंधन की
राजनीति के कारण
संभव हुई, लेकिन
यह अभी भी
राष्ट्रीय
स्तर पर उनकी
ऐतिहासिक
निम्न स्थिति
को दर्शाती
है।
8. भारतीय राजनीति में वामपंथी विचारधारा का योगदान (Contribution of Leftist Ideology)
वामपंथी
विचारधारा का
योगदान केवल
चुनावी जीत तक
सीमित नहीं
रहा है,
बल्कि यह
भारत के
नीतिगत ढाँचे (Policy
Framework) और
सामाजिक
लामबंदी की
प्रक्रियाओं
में गहरे बैठा
हुआ है। इसका
प्रभाव
संसदीय (Parliamentary)
और
गैर-संसदीय (Extra-Parliamentary)
दोनों
स्तरों पर
स्पष्ट दिखाई
देता है।
नीति-निर्माण
पर प्रभाव (Impact on Policy-Making)
वामपंथी
दलों ने अपनी
क्षेत्रीय
सत्ता और राष्ट्रीय
गठबंधन की
भूमिका का
उपयोग करके
भारत की
सामाजिक-आर्थिक
नीतियों को
प्रभावित किया
है, जो
मुख्यधारा की
राजनीति को
कल्याणकारी
राज्य (Welfare State) के
लक्ष्यों की
ओर ले गया।
1)
भूमि
सुधार (Land
Reforms)
वामपंथ का
सबसे
महत्वपूर्ण
और ठोस योगदान
भूमि सुधारों
को लागू करने
में रहा है।
जहाँ अधिकांश
भारतीय
राज्यों में
भूमि सुधार एक
कागजी योजना
बनकर रह गए, वहीं
वाम मोर्चा
शासित पश्चिम
बंगाल और केरल
में इन
सुधारों को
प्रभावी ढंग
से लागू किया
गया:
·
ऑपरेशन
बर्गा (Operation Barga): पश्चिम
बंगाल में, CPI(M) ने
बटाईदारों (Sharecroppers) को
कानूनी
सुरक्षा और
उनके जोत पर
अधिकार प्रदान
किया (Bandopadhyay, 1988)। इस कदम
से ग्रामीण
शक्ति संरचना
में बदलाव आया
और यह
सुनिश्चित
हुआ कि भूमि
सुधार केवल ऊपरी
स्तर के
जमींदारों को
हटाकर धनी
किसानों को
लाभ न
पहुँचाएँ, बल्कि
सीधे गरीबों
तक पहुँचे।
·
केरल में
व्यापक सुधार:
केरल में, 1957
की पहली
कम्युनिस्ट
सरकार और उसके
बाद की सरकारों
ने भूमि
कार्यकाल (Land
Tenancy) को समाप्त
करने और
भूमिहीन
किसानों को
जमीन वितरित
करने के लिए
कठोर कानून
बनाए Nossiter (1982)।
इन सुधारों ने
राज्य में
सामाजिक
समानता को बढ़ावा
दिया।
2)
श्रम
कानून और
श्रमिक
अधिकार
वामपंथियों
ने ट्रेड
यूनियनों (Trade
Unions) (जैसे
AITUC, CITU)
के माध्यम से
संगठित और
असंगठित
दोनों क्षेत्रों
के श्रमिकों
के अधिकारों
की रक्षा में
अग्रणी
भूमिका
निभाई। उनकी
लगातार
माँगों के कारण
ही न्यूनतम
मजदूरी (Minimum
Wage), सामाजिक
सुरक्षा (Social
Security), और
औद्योगिक
विवाद
अधिनियम जैसे
कानून बने। राष्ट्रीय
स्तर पर
गठबंधन
सरकारों को
दिए गए उनके
समर्थन के
बदले में, वाम
दलों ने यह
सुनिश्चित
किया कि
कर्मचारी भविष्य
निधि (EPF)
और कर्मचारी
राज्य बीमा (ESI) जैसे
कल्याणकारी
योजनाओं का
विस्तार किया
जाए।
3)
सार्वजनिक
वितरण
प्रणाली और
जन-कल्याण (Public
Distribution System and Public Welfare)
वामपंथी
सरकारों ने
हमेशा
सार्वजनिक
क्षेत्र (Public
Sector) और
राज्य के
सक्रिय
हस्तक्षेप पर
जोर दिया। केरल
और पश्चिम
बंगाल ने
सार्वजनिक
वितरण प्रणाली
(PDS)
को मजबूत
करने और इसे
भ्रष्टाचार
मुक्त बनाने
के लिए मॉडल
तैयार किए।
अर्थशास्त्री
अमर्त्य सेन Sen (1981)
ने तर्क दिया
कि केरल के
उच्च मानव
विकास सूचकांक
(HDI),
विशेषकर
स्वास्थ्य और
शिक्षा में, मजबूत
सार्वजनिक
स्वास्थ्य
सेवा और
शिक्षा प्रणालियों
पर वामपंथी
नीतियों के
निरंतर ध्यान
का परिणाम है।
तुलनात्मक
बार चार्ट:
सार्वजनिक
कल्याण पर
वामपंथी
नीतियों का प्रभाव

व्याख्या
: यह चार्ट
(जिसे Figure
1 के रूप में
संदर्भित
किया जाएगा)
केरल और पश्चिम
बंगाल जैसे
वाम-प्रभावित
राज्यों की
सामाजिक
प्रगति की
तुलना भारत के
राष्ट्रीय
औसत से करता
है। इस तुलना
का उद्देश्य
यह सिद्ध करना
है कि वामपंथी
दलों द्वारा
शिक्षा,
स्वास्थ्य
और सामाजिक
सुरक्षा पर
ऐतिहासिक रूप
से दिए गए बल
का
दीर्घकालिक, संरचनात्मक
परिणाम हुआ
है।
1)
साक्षरता
दर (Literacy Rate - Age 7+)
डेटा
अवलोकन: चार्ट
स्पष्ट रूप से
दिखाता है कि
केरल की साक्षरता
दर (96.2%) न केवल
पश्चिम बंगाल
(76.4%) से काफी आगे है, बल्कि
यह राष्ट्रीय
औसत (74.0%) से भी
लगभग 22 प्रतिशत
अंक अधिक है।
विश्लेषणात्मक
निष्कर्ष:
यह उच्च
साक्षरता दर
वामपंथी और
पूर्व-वामपंथी
सरकारों
द्वारा
सार्वजनिक
शिक्षा पर निरंतर
दिए गए ज़ोर
की प्रत्यक्ष
विरासत है।
केरल में, राजनीतिक
लामबंदी और
शिक्षा को
वर्ग चेतना का
हिस्सा बनाने
की वामपंथी
रणनीति ने
सार्वभौमिक
प्राथमिक
शिक्षा के
लक्ष्य को
राष्ट्रीय
स्तर पर कहीं
पहले हासिल कर
लिया।
2)
शिशु
मृत्यु दर (Infant Mortality Rate - IMR)
डेटा
अवलोकन: शिशु
मृत्यु दर
(प्रति 1,000 जीवित
जन्म) में
केरल का
प्रदर्शन
अत्यंत
सराहनीय है, जिसकी
दर राष्ट्रीय
औसत से काफी
कम है।
विश्लेषणात्मक
निष्कर्ष: यह
अंतर वामपंथी
सरकारों
द्वारा
स्वास्थ्य सेवा
को निजी लाभ
के बजाय
सार्वजनिक
वस्तु (Public Good) मानने
की
प्रतिबद्धता
को दर्शाता
है। केरल ने
सार्वजनिक
स्वास्थ्य
सुविधाओं के
विकेंद्रीकरण
और उन्हें
ग्राम पंचायत
स्तर तक पहुँचाने
पर ध्यान
केंद्रित
किया। निम्न IMR सीधे
तौर पर मातृ
स्वास्थ्य
सेवा और
सार्वजनिक
स्वास्थ्य
प्रणाली की
मजबूती को
दर्शाता है, जिसे
वामपंथी
सरकारों ने
प्राथमिकता
दी।
3)
जीवन
प्रत्याशा (Life
Expectancy at Birth)
डेटा
अवलोकन: चार्ट
यह दर्शाता है
कि जन्म के समय
जीवन
प्रत्याशा
में भी केरल
का प्रदर्शन राष्ट्रीय
औसत (लगभग 69.6
वर्ष) से
उल्लेखनीय
रूप से बेहतर (72.5
वर्ष) है।
विश्लेषणात्मक
निष्कर्ष:
उच्च जीवन
प्रत्याशा
सीधे तौर पर
बेहतर पोषण, उन्नत
सार्वजनिक
स्वास्थ्य
सेवाओं और रोग
निवारण
कार्यक्रमों
की सफलता से
जुड़ी है। यह दर्शाता
है कि वामपंथी
शासन के तहत
विकसित कल्याणकारी
राज्य मॉडल ने
नागरिकों के
जीवन की गुणवत्ता
और दीर्घायु
पर एक स्पष्ट
प्रभाव डाला
है।
9. शैक्षणिक सारांश
यह
तुलनात्मक
चार्ट
सांख्यिकीय
रूप से उस तर्क
को पुष्ट करता
है कि भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा का
सबसे
महत्वपूर्ण
योगदान
संरचनात्मक
सामाजिक
परिवर्तन
लाने में रहा
है। भले ही
वाम दलों की
चुनावी शक्ति
में गिरावट आई
हो, लेकिन
उनके शासनकाल
में स्थापित
सामाजिक पूंजी
और
कल्याणकारी
नीतियाँ आज भी
भारत के सामाजिक
विकास
संकेतकों में
स्पष्ट रूप से
दिखाई देती
हैं, विशेषकर
केरल के
"सामाजिक
लोकतांत्रिक"
मॉडल में, जिसकी
प्रशंसा
अर्थशास्त्री
अमर्त्य सेन Sen (1981)
जैसे
विद्वानों ने
की है। यह
दर्शाता है कि
वामपंथ का
प्रभाव संसद
के गलियारों
से परे,
नागरिकों के
दैनिक जीवन पर
पड़ा है।
सामाजिक
आंदोलन और
लामबंदी (Social
Mobilization)
वामपंथी
विचारधारा ने
भारत में
राजनीतिक चेतना
को वर्ग और
जाति के आधार
पर लामबंद
करने में
निर्णायक
भूमिका
निभाई।
1)
किसान और
कृषि मजदूर
आंदोलन
अखिल
भारतीय किसान
सभा (AIKS)
वामपंथी
विचारधारा से
प्रेरित सबसे
शक्तिशाली जन
संगठनों में
से एक रही है।
स्वतंत्रता के
बाद भी, AIKS
ने सिंचाई, ऋण
माफी,
और कृषि
मजदूरों के
लिए उचित
मजदूरी जैसे
मुद्दों पर कई
देशव्यापी
आंदोलन किए
हैं। इन आंदोलनों
ने यह
सुनिश्चित
किया कि कृषि
संकट और ग्रामीण
गरीबी के
मुद्दे
चुनावी वर्ष
तक सीमित न
रहें,
बल्कि सरकार
पर निरंतर
दबाव बना रहे।
2)
ट्रेड
यूनियन
आंदोलन और
औद्योगिक
चेतना
वामपंथी
ट्रेड
यूनियनों ने
भारत की
औद्योगिक
नीतियों पर एक
प्रति-प्रभाव (Counter-Effect) डाला।
1991 के आर्थिक
उदारीकरण के
बाद, जब
सरकार ने
विनिवेश (Disinvestment) और
निजीकरण पर
जोर दिया, तब
वामपंथी
यूनियनों ने
श्रमिकों के
हितों की
रक्षा के लिए
देशव्यापी
हड़तालें और
बंद आयोजित
किए। इन
प्रयासों ने
अक्सर सरकार
को सामूहिक
सौदेबाजी (Collective
Bargaining) और
श्रमिकों के
लिए वीआरएस (VRS) पैकेज
को बेहतर
बनाने के लिए
मजबूर किया।
3)
सामाजिक
न्याय और
वंचित वर्ग
यद्यपि
वामपंथी
आंदोलनों ने
प्राथमिक रूप
से वर्ग (Class) पर
ध्यान
केंद्रित
किया,
उन्होंने
अप्रत्यक्ष
रूप से जाति
और लिंग आधारित
आंदोलनों को
भी प्रभावित
किया। वामपंथी
मोर्चों में
दलित और
आदिवासी
लामबंदी ने सामाजिक
न्याय की
माँगों को
व्यापक
आर्थिक न्याय
के ढांचे के
भीतर एकीकृत
करने का
प्रयास किया
है, जिससे
जाति और वर्ग
की समस्याओं
को एक साथ संबोधित
किया जा सके Sharma (1991)।
संसदीय
लोकतंत्र को
मजबूत करना (Strengthening Parliamentary Democracy)
वामपंथी
दलों ने अपनी
चुनावी सफलता
के बावजूद, भारत
के
लोकतांत्रिक
संस्थानों
में विश्वास
बनाए रखा और
उन्हें मजबूत
करने में
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाई।
1)
विपक्ष की
भूमिका और
वैकल्पिक
विमर्श
राष्ट्रीय
और राज्य स्तर
पर, वामपंथी
दलों ने एक
सचेत और
सैद्धांतिक
विपक्ष की
भूमिका
निभाई।
उन्होंने
नीतियों की आलोचना
केवल
राजनीतिक लाभ
के लिए नहीं, बल्कि
विचारधारा और
सिद्धांतों
(अर्थात, समाजवाद
और
धर्मनिरपेक्षता)
के आधार पर
की। अमेरिका
के साथ परमाणु
समझौते पर
मनमोहन सिंह सरकार
से समर्थन
वापस लेने का
उनका निर्णय, हालांकि
चुनावी रूप से
महंगा साबित
हुआ, लेकिन
यह दर्शाता है
कि वे
राष्ट्रीय
हित और वैचारिक
प्रतिबद्धता
के लिए सत्ता
की साझेदारी
छोड़ने को
तैयार थे। इस
प्रकार,
उन्होंने
लोकतांत्रिक
जवाबदेही (Democratic
Accountability) के
मानदंड को
ऊँचा किया।
2)
संवैधानिक
संस्थाओं में
विश्वास
विभाजन और
नक्सलवादी
उग्रवाद के
विपरीत,
CPI
और CPI(M) ने
चुनाव
प्रक्रिया, संसद
और
न्यायपालिका
जैसे
संवैधानिक
संस्थाओं में
विश्वास
व्यक्त किया।
क्षेत्रीय सत्ता
में उनकी
भागीदारी ने
यह साबित किया
कि क्रांतिकारी
वामपंथी
विचारधारा भी
शांतिपूर्ण
और
लोकतांत्रिक
साधनों के
माध्यम से
सत्ता
परिवर्तन कर
सकती है। यह
भारतीय
लोकतंत्र की
समावेशी
प्रकृति को
दर्शाता है Vanaik (1990)।
3)
धर्मनिरपेक्षता
का समर्थन
आज़ादी के
बाद से,
वामपंथी दल
भारत की
राजनीति में
धर्मनिरपेक्षता (Secularism) के
सबसे मुखर और
अटल समर्थक
रहे हैं।
उन्होंने
सांप्रदायिक
राजनीति (Communal
Politics) का
लगातार विरोध
किया है, जिससे देश
के
धर्मनिरपेक्ष
ताने-बाने को
बनाए रखने में
वैचारिक
स्थिरता मिली
है।
10. सीमाएँ और आलोचनात्मक मूल्यांकन (Limitations and Critical Assessment)
यद्यपि
भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा का
योगदान
महत्वपूर्ण
रहा है,
लेकिन इसका
मूल्यांकन
इसकी
अंतर्निहित
सीमाओं और
बदलते
राष्ट्रीय
तथा वैश्विक
परिदृश्य के
प्रति इसके
अनुकूलन (adaptation) में
विफलता की
आलोचना के
बिना अधूरा
है।
वैचारिक
और
संगठनात्मक
सीमाएँ (Ideological and Organizational Limitations)
1)
सैद्धांतिक
कठोरता और
आंतरिक
विभाजन : वामपंथी
आंदोलन की
सबसे बड़ी
कमजोरी इसकी
वैचारिक
कठोरता (Ideological
Rigidity) और
अंतर्राष्ट्रीय
कम्युनिस्ट
आंदोलन पर अत्यधिक
निर्भरता रही
है। सोवियत
संघ (USSR)
के विघटन (1991) ने
वैश्विक स्तर
पर
मार्क्सवादी-लेनिनवादी
विचारधारा की
प्रासंगिकता
पर गंभीर
प्रश्नचिह्न
लगा दिया Vanaik (1990)।
भारतीय
वामपंथी दल, जो
अक्सर मास्को
या बीजिंग के
वैचारिक रुख
से प्रभावित
रहे, भारतीय
समाज की
विशिष्ट जाति
और धार्मिक
जटिलताओं को
संबोधित करने
में धीमे रहे।
विभाजन का
प्रभाव: 1964
में CPI
और CPI(M)
का विभाजन, और
1967 में
नक्सलवादी
आंदोलनों का
उदय, वामपंथ
की
संगठनात्मक
शक्ति को
खंडित कर गया।
यह विभाजन
केवल चुनावी
प्रतिद्वंद्विता
तक सीमित नहीं
रहा, बल्कि
इसने वर्ग
लामबंदी की
एकजुटता को भी
कमज़ोर किया।
2)
नक्सलवाद
और राज्य की
प्रतिक्रिया:
सशस्त्र
क्रांति में
विश्वास रखने
वाले नक्सलवादी
आंदोलन (Naxalite Movements) ने
वामपंथी
विचारधारा के
एक हिस्से को
हिंसा की ओर
मोड़ दिया।
भले ही
मुख्यधारा के
संसदीय वाम
दलों ने
नक्सलवाद का
विरोध किया, लेकिन
माओवादी
समूहों की
उपस्थिति ने
अक्सर वामपंथ
की छवि को
कानून और
व्यवस्था की
समस्या से
जोड़ दिया, जिससे
मध्यवर्गीय
मतदाताओं का
समर्थन कम हुआ।
चुनावी
गिरावट और
प्रासंगिकता
का ह्रास (Electoral Decline and Loss of
Relevance)
1)
आर्थिक
उदारीकरण (1991) का
सामना करने
में विफलता : 1991
में शुरू हुए
आर्थिक
उदारीकरण और
वैश्वीकरण (Economic
Liberalization and Globalization)
ने भारतीय
अर्थव्यवस्था
के स्वरूप को
मौलिक रूप से
बदल दिया।
वामपंथी दल इन
परिवर्तनों का
विरोध करने
में तो सक्रिय
रहे, लेकिन
वे निजीकरण, विदेशी
निवेश और सेवा
क्षेत्र के
विस्तार से उत्पन्न
नई आर्थिक
वास्तविकताओं
के लिए कोई व्यवहारिक
और वैकल्पिक
आर्थिक मॉडल
पेश नहीं कर
पाए।
वर्ग
संरचना में
परिवर्तन: उदारीकरण
के कारण
संगठित
औद्योगिक
श्रमिक वर्ग
का आकार घटा, जबकि
सेवा क्षेत्र
और गैर-कृषि
अनौपचारिक क्षेत्र
का विस्तार
हुआ। वामपंथी
दल इन नए श्रमिक
वर्गों को
संगठित करने
में सफल नहीं
हो पाए,
जिससे उनका
पारंपरिक
समर्थन आधार (Trade
Unions and organized labour)
कमज़ोर हुआ।
2)
गढ़ों का
पतन: पश्चिम
बंगाल
पश्चिम
बंगाल में वाम
मोर्चे की 34
साल की सत्ता
का पतन उनकी
राजनीतिक
सीमाओं का
सबसे बड़ा उदाहरण
है।
औद्योगीकरण
पर विरोधाभास:
2000 के दशक में, CPI(M) ने
सिंगूर और
नंदीग्राम
में
औद्योगीकरण
के लिए
किसानों से
कृषि भूमि का
अधिग्रहण
करने का प्रयास
किया। इस कदम
को
गरीब-विरोधी
और सत्तावादी (authoritarian) माना
गया, जो
उनके मूल भूमि
सुधार के
एजेंडे के
विपरीत था Kohli (1990)।
यह कदम पार्टी
की
सैद्धांतिक
शुद्धता और व्यावहारिक
शासन के बीच
के गहरे
विरोधाभास को
दर्शाता है, जिसके
कारण ग्रामीण
और शहरी, दोनों
क्षेत्रों
में पार्टी का
समर्थन आधार समाप्त
हो गया।
राजनीतिक
और सामाजिक
विरोधाभास (Political and Social Contradictions)
1) गठबंधन
की राजनीति की
कीमत:
राष्ट्रीय
स्तर पर, वामपंथी
दलों ने
गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई
गठबंधन बनाने
पर जोर दिया, लेकिन
संयुक्त
प्रगतिशील
गठबंधन (UPA-I) को
दिए गए उनके
बाहरी समर्थन
(2004-2008) ने उनकी
आलोचनात्मक
दूरी को कम कर
दिया।
भारत-अमेरिका
परमाणु
समझौते पर
समर्थन वापस
लेने का उनका
निर्णय,
हालांकि
वैचारिक रूप
से सुसंगत था, लेकिन
इसने उन्हें
अस्थिरता
पैदा करने
वाले दल के
रूप में
प्रस्तुत
किया और
चुनावी रूप से
उन्हें भारी
कीमत चुकानी
पड़ी।
2) जातिगत
और पहचान की
राजनीति से
अलगाव:
भारतीय
राजनीति तेजी
से जाति, धार्मिक
पहचान और
क्षेत्रीयता
पर आधारित पहचान
की राजनीति (Identity
Politics) की
ओर बढ़ी है।
वामपंथी
विचारधारा ने
हमेशा वर्ग (Class) को
प्राथमिक
विश्लेषण का
साधन माना और
जातिगत
भेदभाव या
क्षेत्रीय
आकांक्षाओं
को गौण रूप से
संबोधित किया Srinivas (1966)।
आलोचना: कई
विद्वानों ने
आलोचना की है
कि वामपंथी दल
दलित और
पिछड़ा वर्ग
के आंदोलनों
की नेतृत्वकारी
भूमिका को
स्वीकार करने
के बजाय, उन्हें
केवल अपने
"वर्ग
मोर्चे" में
शामिल करने की
कोशिश करते
रहे, जिससे
वे इन
समुदायों से
भावनात्मक
रूप से जुड़ने
में विफल रहे।
इस विफलता ने
क्षेत्रीय और
जाति-आधारित
दलों को इन
महत्वपूर्ण
सामाजिक
समूहों को
लामबंद करने
का अवसर दिया।
इन सीमाओं
और
विरोधाभासों
ने न केवल
वामपंथी दलों
की चुनावी
संख्या को कम
किया है, बल्कि
21वीं सदी के
भारत में उनकी
वैचारिक प्रासंगिकता
पर भी
प्रश्नचिन्ह
लगाया है।
11. निष्कर्ष (Conclusion)
यह शोध
पत्र भारतीय
राजनीति में
वामपंथी विचारधारा
की भूमिका के
योगदान का
ऐतिहासिक मूल्यांकन
प्रस्तुत
करता है।
विश्लेषण से
स्पष्ट है कि
वामपंथ का
प्रभाव भारत
के लोकतांत्रिक
और
सामाजिक-आर्थिक
ढांचे पर गहरा
और बहुआयामी
रहा है,
हालाँकि
इसकी चुनावी
शक्ति समय के
साथ कम हुई है।
मुख्य
तर्कों का
सारांश (Summary
of Key Arguments)
शोध के
निष्कर्ष
निम्नलिखित
मुख्य तर्कों
की पुष्टि
करते हैं:
नीतिगत और
संस्थागत
योगदान: वामपंथी
दलों ने भूमि
सुधारों को
सफलतापूर्वक
लागू करके
(जैसे पश्चिम
बंगाल में 'ऑपरेशन
बर्गा'
और केरल में
व्यापक सुधार), भारतीय
कृषि संरचना
में मौलिक
परिवर्तन किया।
इसके अलावा, उन्होंने
श्रमिक
अधिकारों को
कानूनी और नीतिगत
सुरक्षा
प्रदान की तथा
सार्वजनिक
वितरण प्रणाली
(PDS) और
शिक्षा/स्वास्थ्य
पर आधारित
कल्याणकारी मॉडल
(केरल मॉडल) के
विकास में
निर्णायक
भूमिका
निभाई। यह
योगदान
प्रत्यक्ष
शासन के माध्यम
से और गठबंधन
सरकारों पर
दबाव डालकर, दोनों
तरह से हुआ।
सामाजिक
चेतना का
विकास: गैर-संसदीय
स्तर पर, अखिल
भारतीय किसान
सभा (AIKS)
और प्रमुख
ट्रेड
यूनियनों के
माध्यम से
वामपंथ ने
वर्ग-आधारित
चेतना (Class
Consciousness) का विकास
किया। इसने
ग्रामीण और
औद्योगिक गरीबों
को संगठित
करके सरकार पर
सामाजिक
न्याय के
एजेंडे को
लागू करने का
निरंतर दबाव
बनाए रखा।
लोकतंत्र
की सुदृढ़ता:
वामपंथ ने एक
सिद्धांत-आधारित
विपक्ष की भूमिका
निभाकर
भारतीय
संसदीय
लोकतंत्र को
मजबूत किया।
धर्मनिरपेक्षता
और संवैधानिक
संस्थानों
में उनके अटूट
विश्वास ने
भारत की राजनीतिक
विविधता को
पोषित करने
में सहायता की
है।
12.
वामपंथ
के योगदान का
अंतिम
मूल्यांकन (Final Assessment of the Left's
Contribution)
यह शोध
निष्कर्ष
निकालता है कि
भारतीय राजनीति
में वामपंथ का
सबसे
महत्वपूर्ण
योगदान परोक्ष
(Indirect)
रहा है। भले
ही वामपंथी दल
स्वयं सत्ता
से दूर रहे
हों, उनकी
विचारधारा ने
राजनीतिक
एजेंडे को वाम
की ओर मोड़ा (Shifted
the Political Agenda Leftward)।
"वामपंथी
आंदोलनों ने
भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस
और अन्य
मुख्यधारा के
दलों को
सामाजिक और
आर्थिक
असमानताओं को
संबोधित करने
के लिए बाध्य
किया,
जिससे भारत
का
कल्याणकारी
राज्य का
चरित्र (Welfare
State Character) मजबूत
हुआ।"
13.
भविष्य
की दिशा और
प्रासंगिकता (Future Direction and Relevance)
वैश्विक
पूंजीवाद और
पहचान की
राजनीति के उदय
के कारण
वामपंथी दलों
की चुनावी
प्रासंगिकता
कम हुई है।
पश्चिम बंगाल
और त्रिपुरा
जैसे गढ़ों का
पतन इस गिरावट
का निर्णायक
प्रमाण है।
भविष्य की
चुनौतियाँ: 21वीं
सदी में
वामपंथ की
प्रासंगिकता
इस बात पर
निर्भर करेगी
कि वे नई
आर्थिक
वास्तविकताओं
(जैसे
उदारीकरण और
तकनीकी
परिवर्तन) के
अनुरूप अपनी
विचारधारा और
संगठनात्मक
रणनीतियों को
कैसे ढालते
हैं। उन्हें
जाति और लिंग
के आधार पर हो
रहे शोषण को
वर्ग संघर्ष
के ढांचे में
सफलतापूर्वक
एकीकृत करना
होगा और एक
ऐसा व्यवहार्य
आर्थिक मॉडल
प्रस्तुत
करना होगा जो
पूंजीवाद की
चुनौतियों और
हिंदुत्व की
राजनीति का
सामना कर सके।
संक्षेप
में, भारतीय
राजनीति में
वामपंथी
विचारधारा का
अध्याय
समाप्त नहीं
हुआ है,
बल्कि यह
स्वरूप
परिवर्तन के
दौर से गुज़र
रहा है। भारत
के संविधान
में निहित
समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष
मूल्यों की
रक्षा में
वामपंथी
विचार आज भी
एक
महत्वपूर्ण, भले
ही चुनावी रूप
से कमज़ोर, बौद्धिक
और सामाजिक
शक्ति बने
रहेंगे।
Bandopadhyay, D. (1988). Land reforms in West Bengal. Economic and Political Weekly, 23(25),
1251-1256.
Dasgupta, A. (1989). Social movements and land Reforms. Orient Blackswan.
Dimitrov, G. (1935). The united front: The Struggle Against Fascism and war. Workers
Library Publishers.
Echeles, J. (1974). The split of the Indian Communist Party. Oxford University Press.
Franquine, J., & Olson, M. (1980). Kerala: The Social Democratic Experiment. Stanford University Press.
Jeffrey, R. (1992). Politics, Women and Well-Being: How Kerala became "a model". Oxford University Press. https://doi.org/10.1007/978-1-349-12252-3
Kohli, A. (1990). Democracy and discontent: India's Growing Crisis of Governability. Cambridge University Press. https://doi.org/10.1017/CBO9781139173803
Lieten, G. K. (1992). Theories of Revolution and the Indian Communist Movement. Economic and Political Weekly, 27(4), PE22-PE32.
Masani, M. R. (1954). The Communist Party of India: A Short History. Derek Verschoyle.
Nossiter, T. J. (1982). Communism in Kerala: A Study in Political Adaptation. Oxford University Press.
Sarkar, S. (1983). Modern India: 1885-1947. Macmillan.
Sen, A. (1981). Poverty and famines: An Essay on Entitlement and Deprivation. Clarendon Press.
Sharma, B. D. (1991). Tribal Self-Development: A Strategy for Land Alienation. Economic and
Political Weekly, 26(13), 855-862.
Srinivas, M. N. (1966). Social change in modern India. Orient Blackswan.
Vanaik, A. (1990). The Painful Transition: Bourgeois Democracy in India. Verso.
|
|
This work is licensed under a: Creative Commons Attribution 4.0 International License
© ShodhSamajik 2025. All Rights Reserved.